नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
मिरे आगे सराब-ए-आगही है
ज़मानों को मिला है सोज़-ए-इज़हार
वो साअत जब ख़मोशी बोल उठी है
हँसी सी इक लब-ए-ज़ौक़-ए-नज़र पर
शफ़क़-ज़ार-ए-तहय्युर बन गई है
ज़माने सब्ज़ ओ सुर्ख़ ओ ज़र्द गुज़रे
ज़मीं लेकिन वही ख़ाकिस्तरी है
पिघलता जा रहा है सारा मंज़र
नज़र तहलील होती जा रही है
धुँदलकों को अँधेरे चाट लेंगे
कि आगे अहद-ए-मर्ग-ए-रौशनी है
बिखरते कारवाँ ये इर्तिक़ा के
सरासीमा सा ज़ौक़-ए-ज़िंदगी है
मैं देखूँ तो दिखा दूँगा तुम्हें 'साज़'
अभी मुझ में बसीरत की कमी है
ग़ज़ल
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
अब्दुल अहद साज़