नौ-ब-नौ एक उमडता हुआ तूफ़ान था मैं
बहते दरिया के लिए इक यही पहचान था मैं
मैं किसी नुक़्ता-ए-बे-लफ़्ज़ का इज़हार नहीं
हाँ कभी हर्फ़-ए-अना वक़्त का इरफ़ान था मैं
देती थी ज़ौक़-ए-नज़र मुझ को गुनह की तर्ग़ीब
यूँ फ़रिश्ता तो न था हाँ मगर इंसान था मैं
उन से ऐ दोस्त मिरा यूँ कोई रिश्ता तो न था
क्यूँ फिर इस तर्क-ए-तअल्लुक़ से पशेमान था मैं
किस तसव्वुर के तहत रब्त की मंज़िल में रहा
किस वसीले के तअस्सुर का निगहबान था मैं
फिर पस-ए-लफ़्ज़ यही बात उठी थी कल शब
बिखरे लफ़्ज़ों के लिए बाइस-ए-हैजान था मैं
इस कहानी में कोई रब्त ओ तसलसुल भी नहीं
क्यूँ कि इस ज़ीस्त का साहिल यही उनवान था मैं
ग़ज़ल
नौ-ब-नौ एक उमडता हुआ तूफ़ान था मैं
साहिल अहमद