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नक़ाब चेहरे से उस के कभी सरकता था | शाही शायरी
naqab chehre se uske kabhi sarakta tha

ग़ज़ल

नक़ाब चेहरे से उस के कभी सरकता था

इरफ़ान अहमद

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नक़ाब चेहरे से उस के कभी सरकता था
तो काले बादलों में चाँद सा चमकता था

उसे भी ख़ित्ता-ए-सरसब्ज़ मिल गया शायद
वो एक अब्र का टुकड़ा जो कल भटकता था

वो मेरे साथ जो चलता था घर के आँगन में
तो माहताब भी पलकें बहुत झपकता था

ये कह के बर्क़ भी बरसात में बहुत रोई
कि एक पेड़ चमन में ग़ज़ब महकता था

ग़म-ए-हयात ने बख़्शे हैं सारे सन्नाटे
कभी हमारे भी पहलू में दिल धड़कता था

जो हो गई है कभी अब्र की नवाज़िश भी
तो साएबान कई दिन तलक टपकता था

अकेले पार उतर के बहुत है रंज मुझे
मैं उस का बोझ उठा कर भी तैर सकता था