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नई ज़मीनों को अर्ज़-ए-गुमाँ बनाते हैं | शाही शायरी
nai zaminon ko arz-e-guman banate hain

ग़ज़ल

नई ज़मीनों को अर्ज़-ए-गुमाँ बनाते हैं

तालीफ़ हैदर

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नई ज़मीनों को अर्ज़-ए-गुमाँ बनाते हैं
ख़ुदा के ब'अद कोई साएबाँ बनाते हैं

वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
हम ऐसे लम्हे में इक दास्ताँ बनाते हैं

पुराने रिश्ते फिर आने लगे हैं अपने क़रीब
नए सिरे से चलो दूरियाँ बनाते हैं

ख़िरद नहीं है यहाँ बस जुनून का सौदा
हम इस जुनून से आगे मकाँ बनाते हैं

वो इश्क़-ज़ादे जिन्हें सूफ़िया कहो हो तुम
वो लब हिलाते हैं और दो-जहाँ बनाते हैं