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नई ज़मीन नया आसमाँ बनाते हैं | शाही शायरी
nai zamin naya aasman banate hain

ग़ज़ल

नई ज़मीन नया आसमाँ बनाते हैं

ख़्वाजा जावेद अख़्तर

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नई ज़मीन नया आसमाँ बनाते हैं
हम अपने वास्ते अपना जहाँ बनाते हैं

बुझी बुझी सी वो तस्वीर-ए-जाँ बनाते हैं
कहीं चराग़ कहीं पर धुआँ बनाते हैं

बयान करते हैं हम दास्तान लफ़्ज़ों में
ज़रा सी बात की वो दास्ताँ बनाते हैं

चमकती धूप में किरनें समेटते हैं हम
उन्हीं को तान के फिर साएबाँ बनाते हैं

सुकून-ए-दिल के लिए हम भी रोज़ काग़ज़ के
कभी तो फूल कभी तितलियाँ बनाते हैं

जो मद्द-ओ-जज़्र से वाक़िफ़ नहीं हैं दरिया के
वो साहिलों पे ही अक्सर मकाँ बनाते हैं

बनाते रहते हैं 'जावेद' कश्तियाँ लेकिन
हम उन के वास्ते फिर बादबाँ बनाते हैं