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नई ज़मीन नए आसमाँ सँवरते रहें | शाही शायरी
nai zamin nae aasman sanwarte rahen

ग़ज़ल

नई ज़मीन नए आसमाँ सँवरते रहें

कबीर अजमल

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नई ज़मीन नए आसमाँ सँवरते रहें
यही है शर्त तो फिर हर्फ़ हर्फ़ मरते रहें

यही सज़ा है कि लम्हों की बाज़-गश्त के बाद
सदी सदी तिरे कूचे में बैन करते रहें

वो इंक़िलाब लकीरों से जो उभर न सका
कहाँ तलक उसी ख़ाके में रंग भरते रहें

कुछ और चाहिए दीवानगी को हद्द-ए-जुनूँ
कुछ और अरसा-ए-महशर कि हम गुज़रते रहें

कोई सदा कोई आवाज़ा-ए-जरस ही सही
कोई बहाना कि हम जाँ निसार करते रहें