नहीं ये ज़िद कि हर इक दर्द तू मिरा ले जा
जो हो सके तो ये बरसों का रत-जगा ले जा
तिरा तो क्या कि ख़ुद अपना भी मैं कभी न रहा
मिरे ख़याल से ख़्वाबों का सिलसिला ले जा
किसी ने दूर बहुत दूर से पुकारा फिर
दिलों की क़ुर्बतें आँखों का फ़ासला ले जा
निकल गया हूँ बहुत अपनी ज़ात से आगे
तू मुझ से मेरे बिछड़ने का सानेहा ले जा
मैं ख़ुद ही अपने तआक़ुब में फिर रहा हूँ अभी
उठा के तू मेरी राहों से रास्ता ले जा
अजीब ज़हर रवाँ है लहू की गर्दिश में
कभी तो शोलागी-ए-जाँ का ज़ाइक़ा ले जा
अमीर-ए-शहर मुझे हुर्मत-ए-हुनर है बहुत
ये अपना तुर्रा-ए-दस्तार ये क़बा ले जा
ग़ज़ल
नहीं ये ज़िद कि हर इक दर्द तू मिरा ले जा
लुत्फ़ुर्रहमान