नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा
हमारे तौबा कर लेने से पैमाने पे क्या गुज़रा
बरहमन सर को अपने पीटता था दैर के आगे
ख़ुदा जाने तिरी सूरत से बुत-ख़ाने पे क्या गुज़रा
मुझे ज़ंजीर कर रक्खा है उन शहरी ग़ज़ालों ने
नहीं मा'लूम मेरे बा'द वीराने पे क्या गुज़रा
हुए हैं चूर मेरे उस्तुख़्वाँ पत्थर से टकरा के
न पूछा ये कभी तू ने कि दीवाने पे क्या गुज़रा
'यक़ीं' कब यार मेरे सोज़-ए-दिल की दाद को पहुँचे
कहाँ है शम्अ' को पर्वा कि परवाने पे क्या गुज़रा
ग़ज़ल
नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन