नहीं कुछ फ़ैज़ हासिल था ज़माने से ख़फ़ा हो कर 
मैं दीवाना बना हूँ ख़ुद ही उस बुत पर फ़ना हो कर 
मेरी दुनिया में अश्क-ओ-ख़ूँ का ताँता रहा हर-दम 
कभी तेरी वफ़ाओं में कभी तुम से जुदा हो कर 
तसव्वुर में भी पिंदार-ए-वफ़ा का लुत्फ़ हासिल था 
तुम्हारी ज़ुल्फ़-ए-क़ातिल-ए-पेशा के ख़म में फ़ना हो कर 
गँवाई अश्कों ने तासीर जो ख़ून-ए-जिगर की थी 
गिरा जब आब-ए-गौहर भी लिबास-ए-तन पे वा हो कर 
यही दुनिया की तंग-बीनी से मिलता है वफ़ाओं को 
जुदा हो जाते हैं आशिक़ सनम से बेवफ़ा हो कर 
वही बे-सूद सी बंदिश ज़माने के उसूलों की 
वफ़ा को क़ैद कर देती हैं ज़ंजीरें सज़ा हो कर 
मैं किन मजबूरियों का अब करूँ मातम बता 'बालिग़' 
जो पाया बे-ख़ुदी में वो गँवाया आश्ना हो कर
        ग़ज़ल
नहीं कुछ फ़ैज़ हासिल था ज़माने से ख़फ़ा हो कर
इरफ़ान अहमद मीर

