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नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी | शाही शायरी
nahin hawa mein ye bu nafa-e-KHutan ki si

ग़ज़ल

नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी

नज़ीर अकबराबादी

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नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी
लपट है ये तो किसी ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की सी

मैं हँस के इस लिए मुँह चूमता हूँ ग़ुंचे का
कि कुछ निशानी है उस में तिरे दहन की सी

ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो
मुझे बू आती है इस में किसी बदन की सी

हज़ार तन के चलें बाँके ख़ूब-रू लेकिन
किसी में आन नहीं तेरे बाँकपन की सी

मुझे तो उस पे निहायत ही रश्क आता है
कि जिस के हाथ ने पोशाक तेरे तन की सी

कहा जो तुम ने कि मनका ढला तो आऊँगा
है बात कुछ न कुछ इस में भी मक्र-ओ-फ़न की सी

वगर्ना सच है तो ऐ जान इतनी मुद्दत में
यही बस एक कही तुम ने मेरे मन की सी

वो देख शैख़ को ला-हौल पढ़ के कहता है
''ये आए देखिए दाढ़ी लगाए सन की सी''

कहाँ तू और कहाँ उस परी का वस्ल 'नज़ीर'
मियाँ तू छोड़ ये बातें दिवाने-पन की सी