नहीं छुपता तिरे इ'ताब का रंग
कि बदलने लगा नक़ाब का रंग
भर गया आँख में शराब का रंग
ज़ालिम उफ़ रे तिरा शबाब का रंग
अब तो लाले हैं जान-ए-मुज़्तर के
और ही कुछ है इज़्तिराब का रंग
तेरे आते ही हो गई पानी
उड़ गया मोहतसिब शराब का रंग
रंग लाएगा दीदा-ए-पुर-आब
देखना दीदा-ए-पुर-आब का रंग
दाग़ दामन ने भी किया पैदा
हश्र के रोज़ आफ़्ताब का रंग
शैख़ जाना है तुझ को जन्नत में
देखता जा मिरी शराब का रंग
सदक़े मैं अपनी पारसाई के
कि बुढ़ापे में है शबाब का रंग
ख़ून से जैसे वास्ता ही नहीं
साफ़ है ख़ंजर-ए-पुर-आब का रंग
रीश-ए-वाइज़ सफ़ेद है कितनी
नहीं चढ़ता कभी ख़िज़ाब का रंग
रंग का उस के पूछना क्या है
जिस का साया भी दे गुलाब का रंग
सच है ऐ हज़रत-'रियाज़' ये बात
कि जुदा सब से है जनाब का रंग
ग़ज़ल
नहीं छुपता तिरे इ'ताब का रंग
रियाज़ ख़ैराबादी