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नहीं अब बा-वफ़ा कोई नहीं है | शाही शायरी
nahin ab ba-wafa koi nahin hai

ग़ज़ल

नहीं अब बा-वफ़ा कोई नहीं है

नज़ीर मेरठी

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नहीं अब बा-वफ़ा कोई नहीं है
मगर शिकवा-गिला कोई नहीं है

भटकता ही फिरे है क़ाफ़िला वो
वो जिस का रहनुमा कोई नहीं है

ये नगरी है फ़क़त गूँगों की नगरी
किसी से बोलता कोई नहीं है

ये कैसे लोग हैं बस्ती है कैसी
किसी को जानता कोई नहीं है

चलाते हैं यहाँ बस अपनी अपनी
किसी की मानता कोई नहीं है

बहुत ही दूर हैं हम तुम से लेकिन
दिलों में फ़ासला कोई नहीं है

यहाँ बस तू ही तू है और मैं हूँ
तिरे मेरे सिवा कोई नहीं है

ग़रीब शहर हैं इस शहर में हम
हमारा आश्ना कोई नहीं है

दरीचों से मिरी आहट को सुन कर
'नज़ीर' अब झाँकता कोई नहीं है