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नग़्मा-ओ-इश्क़ से हैं सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार मिले | शाही शायरी
naghma-o-ishq se hain subha-o-zunnar mile

ग़ज़ल

नग़्मा-ओ-इश्क़ से हैं सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार मिले

मीर हसन

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नग़्मा-ओ-इश्क़ से हैं सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार मिले
एक आवाज़ पे दो साज़ के हैं तार मिले

मैं तो आशुफ़्ता-ए-दिल और दिल आशुफ़्ता-ए-ज़ुल्फ़
ख़ूब हम दोनों गिरफ़्तार गिरफ़्तार मिले

मस्लहत है कि तिरी चश्म को है दिल से हिजाब
रंज हो और जो बीमार से बीमार मिले

दिन तवक़्क़ो ही तवक़्क़ो में कहाँ तक गुज़रें
मर गए हिज्र में बस अब तो कहीं यार मिले

अपनी ही वज़्अ पे लावेंगे ख़ुदा ख़ैर करे
बे-तरह रहते हैं इस शोख़ से अय्यार मिले

दर्द-ओ-रंज-ओ-अलम ओ हसरत-ओ-दाग़ ओ ग़म-ओ-रश्क
मुझ को क्या क्या न तिरे इश्क़ में आज़ार मिले

क्या बड़ी उम्र है दिल में अभी गुज़रा था मिरे
कि मज़ा होवे जो ऐसे में वो दिलदार मिले

बारे तो आन ही पहुँचा मिरा जी शाद हुआ
मैं ने अब जाना कि हैं दोनों के असरार मिले

मूँद ले जब तू इन आँखों को जहाँ से तू 'हसन'
दिल की आँखों से तुझे यार का दीदार मिले