नफ़रतों से चेहरा चेहरा गर्द था
मुजरिम-ए-इंसानियत हर फ़र्द था
कुछ हवाओं में भी था ख़ौफ़-ओ-हिरास
कुछ फ़ज़ाओं का भी चेहरा ज़र्द था
बे-हिसी में दफ़्न थी इंसानियत
आदमिय्यत का भी लहजा सर्द था
अपने काँधों पर उठाए अपना बोझ
कोई आवारा कोई शब-गर्द था
फूल से चेहरे थे मुरझाए हुए
शहर-ए-गुल भी आज शहर-ए-दर्द था
जिस ने दुनिया भर के ग़म अपनाए थे
उस को दुनिया ने कहा बे-दर्द था
सच तो 'अख़्तर' ये है उस माहौल में
मेरा दुश्मन ही मिरा हमदर्द था
ग़ज़ल
नफ़रतों से चेहरा चेहरा गर्द था
अख़्तर फ़िरोज़