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नामा-बर भी वहाँ रसा न हुआ | शाही शायरी
nama-bar bhi wahan rasa na hua

ग़ज़ल

नामा-बर भी वहाँ रसा न हुआ

जोश मलसियानी

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नामा-बर भी वहाँ रसा न हुआ
किसी सूरत मिरा भला न हुआ

दर्द की दाद कौन दे मुझ को
तू ही जब दर्द-आश्ना न हुआ

वही मतलूब हो वही तालिब
इक मुअम्मा हुआ ख़ुदा न हुआ

मुख़्तसर भी है और जामे भी
क्या हुआ का जवाब क्या न हुआ

हाँ कहो कुछ हमें भी हो मालूम
वो गिला क्या जो बरमला न हुआ

इश्क़ उस दर्द का नहीं क़ाइल
जो मुसीबत की इंतिहा न हुआ

तुम से तकमील-ए-जौर हो न सकी
इस अदा का भी हक़ अदा न हुआ

इतना पास-ए-वफ़ा तो है उस को
बेवफ़ाई से बे-वफ़ा न हुआ

दिल-कुशा थी निगाह-ए-नाज़ उस की
तीर क्यूँ उस का दिल-कुशा न हुआ

दिल कभी ख़ुश हुआ तो था लेकिन
इस का अब ज़िक्र क्या हुआ न हुआ

क़ाबिल-ए-शुक्र है वो सब्र ऐ 'जोश'
जो कभी दस्त-ए-इल्तिजा न हुआ