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नाम इस अल्लाह के बंदे का भी रुस्वाई में है | शाही शायरी
nam is allah ke bande ka bhi ruswai mein hai

ग़ज़ल

नाम इस अल्लाह के बंदे का भी रुस्वाई में है

ख़लील रामपुरी

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नाम इस अल्लाह के बंदे का भी रुस्वाई में है
जो समुंदर की तरह से अपनी गहराई में है

शाख़ से पत्ता भी उड़ता है परिंदे की तरह
ज़िंदगी की कोई चिंगारी तमन्नाई में है

धूप का दरिया उमड आता है जब चढ़ता है दिन
कोई ऐसी लहर क्या उस की भी अंगड़ाई में है

जब हवाओं में अड़ेगा सब पता लग जाएगा
झील नीले आसमाँ की कितनी गहराई में है

छोड़ जाती है हवा भी नक़्श अपने ख़ाक पर
सोचता हूँ तू कहाँ पर जल्वा-आराई में है

डूब जाते हैं मनाज़िर डूबते सूरज के साथ
सच कहा करता था वो भाई की जाँ भाई में है

लहलहाती ख़ाक को देखा तो क्या देखा मियाँ
उस को देखा चाहिए जो उस की रा'नाई में है

कोई दरवाज़े की दस्तक कान में पड़ती नहीं
बुत बना बैठा हूँ घर में ध्यान शहनाई में है

घेरे रहता है मुझे लोगों की आवाज़ों का शोर
वो अकेला देख कर कहते हैं तन्हाई में है

उड़ते तय्यारे की खिड़की से ज़रा सा झाँक ले
इतने हंगामों-भरी दुनिया भी तन्हाई में है

हम किसी शीशे को अपने मुँह से पत्थर क्यूँ कहें
जिस का जो किरदार है वो उस की गोयाई में है

दोस्तो क्या पूछते हो हाल इस के गाँव का
आइना लिपटा हुआ तालाब की काई में है

उठ रही थीं दूर तक पानी की दीवारें 'ख़लील'
हम ये समझे नक़्स कोई अपनी बीनाई में है