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नाला-ए-सुब्ह के बग़ैर गिर्या-ए-शाम के बग़ैर | शाही शायरी
nala-e-subh ke baghair giriya-e-sham ke baghair

ग़ज़ल

नाला-ए-सुब्ह के बग़ैर गिर्या-ए-शाम के बग़ैर

कृष्ण मोहन

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नाला-ए-सुब्ह के बग़ैर गिर्या-ए-शाम के बग़ैर
होता नहीं विसाल-ए-यार सोज़-ए-दवाम के बग़ैर

तू ने अगर किया न याद शक़ रहेगा ना-मुराद
कैसे कटेगी ज़िंदगी तेरे पयाम के बग़ैर

है ये मिरा ही हौसला करता हूँ रोज़ सामना
गर्दिश-ए-सुब्ह-ओ-शाम का गर्दिश-ए-जाम के बग़ैर

अर्सा हुआ वो फ़ित्नागर आया नहीं कभी इधर
सूनी पड़ी है रह-गुज़र हुस्न-ए-ख़िराम के बग़ैर

कैफ़-ए-नशात दम-ब-दम चूमता है मिरे क़दम
चलता नहीं हूँ एक गाम आप के नाम के बग़ैर

जब भी मिले वो ना-गहाँ झूम उठे हैं क़ल्ब ओ जाँ
मिलने में लुत्फ़ है अगर मिलना हो काम के बग़ैर

मेरे जुनूँ के फ़ैज़ से गर्मी-ए-शौक़ आ गई
सर्द थी महफ़िल-ए-तरब मेरे कलाम के बग़ैर