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ना-मुनासिब है ख़फ़ा नालों को सुन कर होना | शाही शायरी
na-munasib hai KHafa nalon ko sun kar hona

ग़ज़ल

ना-मुनासिब है ख़फ़ा नालों को सुन कर होना

राग़िब बदायुनी

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ना-मुनासिब है ख़फ़ा नालों को सुन कर होना
अभी आया ही नहीं तुम को सितमगर होना

है सितम का ये करम आह नहीं करते हम
वर्ना आसान न था सब्र का ख़ूगर होना

नहीं रहती कोई रोक अहल-ए-जुनूँ के आगे
कोई दीवार हो शक़ हो के उसे दर होना

रो पड़ा मैं भी पसीजा जो वो बुत नालों पर
क़ाबिल-ए-रहम है इंसान का पत्थर होना

आ के समझाए वो तस्कीन का पहलू हम को
मान लेंगे दिल-ए-बेताब का पत्थर होना

गोर में दफ़्न किया जब न रुके ज़िंदाँ में
किस तरह देखते दीवानों का बे-घर होना

क़िस्सा-ए-तूर-ओ-कलीम आप सुनाते हैं फ़ुज़ूल
नहीं मुमकिन जो तजल्ली का मुकर्रर होना

छोड़ कर दाइरा-ए-हक़ को न जाए 'राग़िब'
कुफ़्र है सिलसिला-ए-शैख़ से बाहर होना