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न सही हम पे इनायत नहीं पैमानों की | शाही शायरी
na sahi hum pe inayat nahin paimanon ki

ग़ज़ल

न सही हम पे इनायत नहीं पैमानों की

गुलज़ार देहलवी

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न सही हम पे इनायत नहीं पैमानों की
खिड़कियाँ खुल गईं आँखों से तो मय-ख़ानों की

आ नहीं सकता समझ में कभी फ़र्ज़ानों की
सुर्ख़-रू कैसे जबीनें हुईं दीवानों की

ज़ुल्फ़ बिखराए सर-ए-शाम परेशान हैं वो
क़िस्मतें औज पे हैं चाक-गरेबानों की

दास्ताँ कोहकन-ओ-क़ैस की फ़र्सूदा हुई
सुर्ख़ियाँ हम ने बदल डाली हैं अफ़्सानों की

आँखें तो भीग चुकीं और न प्यार आ जाए
और रूदाद सुनें आप न दीवानों की

मय-कदे आने से पहले का ज़माना तौबा
ख़ाक छानी है हरम और सनम-ख़ानों की

ज़ख़्म-ए-दिल को कोई मरहम भी न रास आएगा
हर गुल-ए-ज़ख़्म में लज़्ज़त है नमक-दानों की

जाने कब निकले मुरादों की दुल्हन की डोली
दिल में बारात है ठहरी हुई अरमानों की

ज़ख़्म पर हँसते हैं अश्कों को गुहर कहते हैं
अक़्ल मारी गई इस दौर में इंसानों की

कितने मोमिन नज़र आते हैं सनम-ख़ानों में
एक काफ़िर नहीं बस्ती में मुसलमानों की

जितनी तज़हीक तिरे शहर में अपनों की हुई
उतनी तौहीन न होगी कहीं बेगानों की

रात बढ़ बढ़ के जो शम्अ' पे हुए थे सदक़े
सुब्ह तक ख़ाक न देखी गई परवानों की

हरम-ओ-दैर की बस्ती में है तमईज़-ओ-नफ़ाक़
कोई तफ़रीक़-ए-मिलल देखी न दीवानों की

लोग क्यूँ शहर-ए-ख़मोशाँ को खिंचे जाते हैं
जाने क्या जान है इस बस्ती में बे-जानों की

रुख़ बदलते हैं दोराहे पे खड़े हैं सालार
सई-ए-नाकाम तो देखे कोई नादानों की

हाथा-छाँटी है अजब और अजब लूट-खसूट
निय्यतें और हैं शायद कि निगहबानों की

पूछे 'गुलज़ार' से है वो ब-ज़बान-ए-सौसन
तुम कहाँ बज़्म में आए हो ज़बाँ-दानों की