न रहबरी का कोई सिलसिला नज़र आए
चलो वो राह जो बे-नक़्श-ए-पा नज़र आए
उड़ा गए हैं बहुत धूल जाने वाले लोग
छटे ग़ुबार तो कुछ रास्ता नज़र आए
बस एक लम्स का एहसास कर गया बेचैन
महक ही तेरी न दस्त-ए-हवा नज़र आए
निगाह चाहिए बस अहल-ए-दिल फ़क़ीरों की
बुरा भी देखूँ तो मुझ को भला नज़र आए
हमें ये शर्म कि हम से तो बंदगी न हुई
वो चाहता है कि मिस्ल-ए-ख़ुदा नज़र आए
जो अपने आप से आगे न देख सकता हो
हमारा हाल भला उस को क्या नज़र आए
क़ुसूर-वार न हो कर भी तुम मिटाओ उसे
'अनीस' यार कोई जब ख़फ़ा नज़र आए
ग़ज़ल
न रहबरी का कोई सिलसिला नज़र आए
अनीस देहलवी