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न रहबरी का कोई सिलसिला नज़र आए | शाही शायरी
na rahbari ka koi silsila nazar aae

ग़ज़ल

न रहबरी का कोई सिलसिला नज़र आए

अनीस देहलवी

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न रहबरी का कोई सिलसिला नज़र आए
चलो वो राह जो बे-नक़्श-ए-पा नज़र आए

उड़ा गए हैं बहुत धूल जाने वाले लोग
छटे ग़ुबार तो कुछ रास्ता नज़र आए

बस एक लम्स का एहसास कर गया बेचैन
महक ही तेरी न दस्त-ए-हवा नज़र आए

निगाह चाहिए बस अहल-ए-दिल फ़क़ीरों की
बुरा भी देखूँ तो मुझ को भला नज़र आए

हमें ये शर्म कि हम से तो बंदगी न हुई
वो चाहता है कि मिस्ल-ए-ख़ुदा नज़र आए

जो अपने आप से आगे न देख सकता हो
हमारा हाल भला उस को क्या नज़र आए

क़ुसूर-वार न हो कर भी तुम मिटाओ उसे
'अनीस' यार कोई जब ख़फ़ा नज़र आए