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न पयाम चाहते हैं न कलाम चाहते हैं | शाही शायरी
na payam chahte hain na kalam chahte hain

ग़ज़ल

न पयाम चाहते हैं न कलाम चाहते हैं

अरशद सिद्दीक़ी

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न पयाम चाहते हैं न कलाम चाहते हैं
मिरी रात के अंधेरे तिरा नाम चाहते हैं

जो जिगर को ख़ाक कर दे जो दिमाग़ फूँक डाले
मिरे प्यासे होंट ऐसा कोई जाम चाहते हैं

वो हो शुग़्ल-ए-बादा-नोशी कि तवाफ़-ए-कू-ए-जानाँ
ग़म-ए-ज़िंदगी के मारे कोई काम चाहते हैं

हमें मिट के भी ये हसरत कि भटकते उस गली में
वो हैं कैसे लोग या रब जो क़याम चाहते हैं

तिरी याद तेरी आहट तिरा चेहरा तेरा वादा
कोई शम्अ हो मगर हम सर-ए-शाम चाहते हैं

हम इसी लिए हैं 'अरशद' अभी तिश्ना-मसर्रत
कि जो उन लबों से छलके वही जाम चाहते हैं