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न मोहतसिब से ये मुझ को ग़रज़ न मस्त से काम | शाही शायरी
na mohtasib se ye mujhko gharaz na mast se kaam

ग़ज़ल

न मोहतसिब से ये मुझ को ग़रज़ न मस्त से काम

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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न मोहतसिब से ये मुझ को ग़रज़ न मस्त से काम
मुझे तो लेना है साक़ी के आज दस्त से काम

सनम तू मेरी परस्तिश की क़द्र तब जाने
कि जब पड़े तुझे काफ़िर ख़ुदा-परस्त से काम

मैं गोशा-गीर हुआ सैर कर नशेब ओ फ़राज़
रहा न मेरे क़दम को बुलंद ओ पस्त से काम

रखे है शीशा मिरा संग साथ रब्त-ए-क़दीम
कि आठ पहर मिरे दिल को है शिकस्त से काम

जिसे मसावी है माज़ी ओ हाल ओ मुस्तक़बिल
उसे रहा नहीं आइंदा बूद-ओ-हस्त से काम

मैं कुफ़्र ओ दीं से गुज़र कर हुआ हूँ ला-मज़हब
ख़ुदा-परस्त से मतलब न बुत-परस्त से काम

किसू को क़ैद करे है किसू को बाँधे है
वो ले है अपने अमल बीच बंद-ओ-बस्त से काम

दिल उस की ज़ुल्फ़ के पेचों में 'हातिम' उलझा है
रखे नहीं है मिरा सैद दाम ओ शुस्त से काम