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न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने | शाही शायरी
na mauj-e-baada na zulfon na in ghaTaon ne

ग़ज़ल

न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने

सलाम मछली शहरी

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न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने
मुझे डसा है मिरी शोला-ज़ा नवाओं ने

ग़म-ए-हयात से टकरा के गीत बन जाना
सिखा दिया है मुझे आप की दुआओं ने

जो कज-कुलाह-ए-दयार-ए-तरब हैं सब कुछ हैं
मुझे तो लूट लिया है मिरी वफ़ाओं ने

कभी कभी तो सुना है हिला दिए हैं महल
हमारे ऐसे ग़रीबों की इल्तिजाओं ने

तुम्हारा हुस्न हो या मेरी शाएरी उन को
अमर किया है मोहब्बत की आत्माओं ने

ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दिल बहुत सही लेकिन
कोई सवाल किया है अभी घटाओं ने

किसी चमन किसी गुल-पैरहन के घर जाएँ
मुझी को ताक लिया मध-भरी हवाओं ने

अजीब बात है मैं जब भी कुछ उदास हुआ
दिया सहारा हरीफ़ों की बद-दुआओं ने

मैं बुत-कदों से मक़ाबिर में गिरने वाला था
मगर सँभाल लिया ख़ुश-नज़र ख़ुदाओं ने

ख़बर है गर्म कि इक तर्क-ए-लखनऊ को 'सलाम'
असीर कर लिया दिल्ली की अप्सराओं ने