न कम हुआ है न हो सोज़-ए-इज़्तिराब-ए-दुरूँ
तिरे क़रीब रहूँ मैं कि तुझ से दूर रहूँ
कहीं कोई तिरा महरम है ऐ दिल-ए-महज़ूँ
मुझे बता कि किधर जाऊँ किस से बात करूँ
तिरी नज़र ने बहुत कुछ सिखा दिया दिल को
कुछ इतना सहल न था वर्ना कारोबार-ए-जुनूँ
पुकारती हैं मुझे वुसअ'तें दो-आलम की
मैं अपने आप से दामन छुड़ा सकूँ तो चलूँ
तिरी वफ़ा न मुझे रास आ सकी लेकिन
मैं सोचता हूँ तुझे कैसे बेवफ़ा कह दूँ
मिरी शिकस्ता-दिली का न कर ख़याल इतना
कहीं न मैं तिरे ख़्वाबों में तल्ख़ियाँ भर दूँ
गिरफ़्त-ए-अस्र-ए-रवाँ इस क़दर तो मोहलत दे
कि मिट रही है जो दुनिया उसे मैं देख तो लूँ
ये किस ख़याल ने की है मिरी ज़बाँ-बंदी
तुझी से कहने की बातें तुझी से कह न सकूँ
वो इज़्तिराब-तलब था किसी तवक़्क़ो' पर
अब उठ चुकी है तवक़्क़ो' अब आ चला है सुकूँ

ग़ज़ल
न कम हुआ है न हो सोज़-ए-इज़्तिराब-ए-दुरूँ
मख़मूर सईदी