न जाने कौन है देखा हुआ सा लगता है
इक अजनबी है मगर आश्ना सा लगता है
तज़ाद-ए-सूरत-ओ-सीरत पे अब यक़ीं आया
वो बेवफ़ा है मगर बा-वफ़ा सा लगता है
गराँ न गुज़रा था ऐसा ये इंतिज़ार कभी
अब एक लम्हा भी सब्र-आज़मा सा लगता है
उन्हें उमीद हो तामील की तो क्यूँ कर हो
कि उन का हुक्म ही कुछ इल्तिजा सा लगता है
ये फूल सादा-ओ-बे-रंग ही सही लेकिन
तुम्हारे जोड़े में क्या ख़ुशनुमा सा लगता है
वो भाई भाई हैं रहते हैं एक ही घर में
मगर दियों में बड़ा फ़ासला सा लगता है
वो तुम वो मैं वो लब-ए-जू वो रात और वो चाँद
ये एक ख़्वाब ही कितना भला सा लगता है
न मुझ में वस्फ़ न ख़ूबी न कुछ हुनर फिर भी
तमाम शहर मिरा हम-नवा सा लगता है
ये आज शहर में क्या बात हो गई 'कौसर'
जिसे भी देखिए सहमा हुआ सा लगता है

ग़ज़ल
न जाने कौन है देखा हुआ सा लगता है
महेर चंद काैसर