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न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी | शाही शायरी
na ho tughyan-e-mushtaqi to main rahta nahin baqi

ग़ज़ल

न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी

अल्लामा इक़बाल

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न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
कि मेरी ज़िंदगी क्या है यही तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी

मुझे फ़ितरत नवा पर पय-ब-पय मजबूर करती है
अभी महफ़िल में है शायद कोई दर्द-आश्ना बाक़ी

वो आतिश आज भी तेरा नशेमन फूँक सकती है
तलब सादिक़ न हो तेरी तो फिर क्या शिकवा-ए-साक़ी

न कर अफ़रंग का अंदाज़ा उस की ताबनाकी से
कि बिजली के चराग़ों से है इस जौहर की बर्राक़ी

दिलों में वलवले आफ़ाक़-गीरी के नहीं उठते
निगाहों में अगर पैदा न हो अंदाज़-ए-आफ़ाक़ी

ख़िज़ाँ में भी कब आ सकता था मैं सय्याद की ज़द में
मिरी ग़म्माज़ थी शाख़-ए-नशेमन की कम औराक़ी

उलट जाएँगी तदबीरें बदल जाएँगी तक़दीरें
हक़ीक़त है नहीं मेरे तख़य्युल की है ख़ल्लाक़ी