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न देखा रुख़ बे-नक़ाब-ए-मोहब्बत | शाही शायरी
na dekha ruKH be-naqab-e-mohabbat

ग़ज़ल

न देखा रुख़ बे-नक़ाब-ए-मोहब्बत

जिगर मुरादाबादी

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न देखा रुख़ बे-नक़ाब-ए-मोहब्बत
मोहब्बत है शायद हिजाब-ए-मोहब्बत

बरसता है कैफ़-ए-शबाब-ए-मोहब्बत
हर आँसू है जाम-ए-शराब-ए-मोहब्बत

अजब जोश पर है शबाब-ए-मोहब्बत
मोहब्बत है मस्त-ए-शराब-ए-मोहब्बत

ज़हे ख़्वाब ओ ताबीर ख़्वाब-ए-मोहब्बत
मोहब्बत ही निकली जवाब-ए-मोहब्बत

मुझे क्या पड़ी है तिरे दर से उठ्ठूँ
ठहरने जो दे इज़्तिराब-ए-मोहब्बत

दिल-ए-ज़र्रा ज़र्रा है तूर-ए-तजल्ली
ज़हे जल्वा-ए-आफ़्ताब-ए-मोहब्बत

सभी उठ गए दीदा ओ दिल से पर्दे
न उट्ठा मगर इक हिजाब-ए-मोहब्बत

न रक्खो ग़रज़ हम से इतना ही कह दो
हलाक-ए-तबस्सुम ख़राब-ए-मोहब्बत

लहू की हर इक बूँद दिल बन गई है
ख़ुशा लज़्ज़त-ए-कामयाब-ए-मोहब्बत

हुदूद-ए-मोहब्बत से भी बढ़ गए हम
सलामत रहे इज़्तिराब-ए-मोहब्बत