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न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का | शाही शायरी
na be-kali ka hunar hai na jaan-fazai ka

ग़ज़ल

न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का

तालीफ़ हैदर

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न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
हमें तो शौक़ है बस यूँही नय-नवाई का

जब उस को जानने निकले तो कुछ नहीं जाना
ख़ुदा से हम को भी दावा था आश्नाई का

रह-ए-हयात में कोई नहीं तो क्या शिकवा
हमें गिला है तो बस अपनी बेवफ़ाई का

हमारी आँखों से शबनम टपक रही है अभी
यही तो वक़्त है उस गुल की रू-नुमाई का

उसे कहाँ हमें क़ैदी बना के रखना था
हमीं को शौक़ नहीं था कभी रिहाई का