न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
सदफ़ में रहते ये मोती तो बे-बहा होते
मुझ ऐसे रिंद से रखते ज़रूर ही उल्फ़त
जनाब-ए-शैख़ अगर आशिक़-ए-ख़ुदा होते
गुनाहगारों ने देखा जमाल-ए-रहमत को
कहाँ नसीब ये होता जो बे-ख़ता होते
जनाब-ए-हज़रत-ए-नासेह का वाह क्या कहना
जो एक बात न होती तो औलिया होते
मज़ाक़-ए-इश्क़ नहीं शेख़ में ये है अफ़्सोस
ये चाशनी भी जो होती तो क्या से क्या होते
महल्ल-ए-शुक्र हैं 'अकबर' ये दरफ़शाँ नज़्में
हर इक ज़बाँ को ये मोती नहीं अता होते
ग़ज़ल
न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
अकबर इलाहाबादी