न आया आज भी सब खेल अपना मिट्टी है
तमाम रात ये सर और पलंग की पट्टी है
जबीं पे क़हर न तन्हा सियाह पट्टी है
भवों की तेग़ भी काफ़िर बड़ी ही कट्टी है
फुंकी निकलती हैं अश्कों की शीशियाँ यारो
हमारे सीने में किस शीशागर की भट्टी है
गले लगाइए मुँह चूमिए सुला रखिए
हमारे दिल में भी क्या क्या हवस इखट्टी है
कोई हिजाब नहीं तुझ में और सनम में 'नज़ीर'
मगर तू आप ही पर्दा और आपी टट्टी है

ग़ज़ल
न आया आज भी सब खेल अपना मिट्टी है
नज़ीर अकबराबादी