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मुसाफ़िरत के तहय्युर से कट के कब आए | शाही शायरी
musafirat ke tahayyur se kaT ke kab aae

ग़ज़ल

मुसाफ़िरत के तहय्युर से कट के कब आए

रियाज़ मजीद

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मुसाफ़िरत के तहय्युर से कट के कब आए
जो चौथी सम्त को निकले पलट के कब आए

अब अपने अक्स को पहचानना भी मुश्किल है
हम अपने आप में हैरत से हट के कब आए

इक इंतिशार था घर में भी घर से बाहर भी
सँवर के निकले थे किस दिन सिमट के कब आए

हम ऐसे ख़ल्वतियों से मुकालमे को ये लोग
जहान भर की सदाओं से अट के कब आए

ये गुफ़्तुगू तो है रद्द-ए-अमल तिरी चुप का
जो कह रहे हैं ये हम घर से रट के कब आए

जब अपने आप में मसरूफ़ हो गया वो बहुत
हम उस की सम्त ज़माने से कट के कब आए

'रियाज़' ध्यान हम-आग़ोश आइने से रहा
ख़याल उस के तसव्वुर से हट के कब आए