मुँह से तिरे सौ बार के शरमाए हुए हैं
क्या ज़र्फ़ है ग़ुंचों का जो इतराए हुए हैं
कहते हैं गिनो मुझ पे जो दिल आए हुए हैं
कुछ छीने हुए हैं मिरे कुछ पाए हुए हैं
ख़ंजर पे नज़र है कभी दामन पे नज़र है
कौन आता है महशर में वो घबराए हुए हैं
लब पर है अगर आह तो आँखों में हैं आँसू
बादल ये बहुत देर से गरमाए हुए हैं
मय पीने में क्या ज़िद थी कोई ज़हर नहीं है
है तेरी क़सम 'शोला' क़सम खाए हुए हैं
ग़ज़ल
मुँह से तिरे सौ बार के शरमाए हुए हैं
शोला अलीगढ़ी