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मुनफ़रिद तो है तिरा कोई मुक़ाबिल न हुआ | शाही शायरी
munfarid to hai tera koi muqabil na hua

ग़ज़ल

मुनफ़रिद तो है तिरा कोई मुक़ाबिल न हुआ

माहिर बलगिरामी

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मुनफ़रिद तो है तिरा कोई मुक़ाबिल न हुआ
कोई मख़्लूक़ भी कौनैन में कामिल न हुआ

इक तमाशा वो भी दीदार के क़ाबिल न हुआ
रक़्स-ए-बिस्मिल जो सर-ए-कूचा-ए-क़ातिल न हुआ

दिल जो क़ुर्बानी-ए-परवाना का हामिल न हुआ
दरख़ुर-ए-अंजुमन-ए-शम्अ'-शमाइल न हुआ

कौन है तेरी इनायत का जो क़ाइल न हुआ
किस के दुख-सुख में तो वक़्त आने पे शामिल न हुआ

जाँ-ब-हक़ हो गया तस्लीम अलग बात है ये
रह-रव-ए-इश्क़ यूँ आसूदा-ए-मंज़िल न हुआ

आँख क्या आँख नहीं ताब-ए-नज़ारा जिस को
दिल वो क्या दर्द-ए-मोहब्बत का जो हामिल न हुआ

रोज़-ए-अव्वल से हैं सरगर्म-ए-तलाश-ए-महबूब
हम सा कोई मगर आवारा-ए-मंज़िल न हुआ

ख़ुद-कुशी शिद्दत-ए-ईज़ा-ए-वफ़ा में तौबा
बुज़दिली कहिए इसे ये हल-ए-मुश्किल न हुआ

ऐसा लगता है असीरान-ए-क़फ़स छूट गए
आज हर दिन की तरह शोर-ए-सलासिल न हुआ

जुज़ दिल-ए-अहल-ए-सुख़न लहन में ढल कर इल्हाम
दहर में हर कस-ओ-ना-कस पे तो नाज़िल न हुआ

करवटें लीं तो बहुत हुस्न की रा'नाई ने
इश्क़ का रंग प 'माहिर' कभी ज़ाइल न हुआ