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मुख़्तसर सी ज़िंदगी में कितनी नादानी करे | शाही शायरी
muKHtasar si zindagi mein kitni nadani kare

ग़ज़ल

मुख़्तसर सी ज़िंदगी में कितनी नादानी करे

महताब हैदर नक़वी

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मुख़्तसर सी ज़िंदगी में कितनी नादानी करे
इन नज़ारों को कोई देखे कि हैरानी करे

धूप में इन आबगीनों को लिए फिरता हूँ मैं
कोई साया मेरे ख़्वाबों की निगहबानी करे

एक मैं हूँ और दस्तक कितने दरवाज़ों पे दूँ
कितनी दहलीज़ों पे सज्दा एक पेशानी करे

रात ऐसी चाहिए माँगे जो दिन भर का हिसाब
ख़्वाब ऐसा हो जो इन आँखों में वीरानी करे

साहिलों पर मैं खड़ा हूँ तिश्ना-कामों की तरह
कोई मौज-ए-आब मेरी आँख को पानी करे