मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
उधर कुछ और कहती है इधर कुछ और कहती है
न तू दुश्मन के घर सोया न तू दुश्मन के घर जागा
ये सब सच है तिरी सूरत मगर कुछ और कहती है
उधर मद्द-ए-नज़र उन को छुपाना राज़ उल्फ़त का
इधर कम्बख़्त मेरी चश्म-ए-तर कुछ और कहती है
तसव्वुर दिल में शायद आ गया है घर के जाने का
ये अंगड़ाई तिरी वक़्त-ए-सहर कुछ और कहती है
नहीं मा'लूम 'मुज़्तर' मर गया या साँस बाक़ी है
इलाही ख़ैर शक्ल-ए-चारागर कुछ और कहती है
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ग़ज़ल
मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
मुज़्तर ख़ैराबादी