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मुझे ऐसा लुत्फ़ अता किया कि जो हिज्र था न विसाल था | शाही शायरी
mujhe aisa lutf ata kiya ki jo hijr tha na visal tha

ग़ज़ल

मुझे ऐसा लुत्फ़ अता किया कि जो हिज्र था न विसाल था

ऐतबार साजिद

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मुझे ऐसा लुत्फ़ अता किया कि जो हिज्र था न विसाल था
मिरे मौसमों के मिज़ाज-दाँ तुझे मेरा कितना ख़याल था

किसी और चेहरे को देख कर तिरी शक्ल ज़ेहन में आ गई
तिरा नाम ले के मिला उसे मेरे हाफ़िज़े का ये हाल था

कभी मौसमों के सराब में कभी बाम-ओ-दर के अज़ाब में
वहाँ उम्र हम ने गुज़ार दी जहाँ साँस लेना मुहाल था

कभी तू ने ग़ौर नहीं किया कि ये लोग कैसे उजड़ गए
कोई 'मीर' जैसा गिरफ़्ता-दिल तेरे सामने की मिसाल था

तिरे बा'द कोई नहीं मिला जो ये हाल देख के पूछता
मुझे किस की आग जला गई मिरे दिल को किस का मलाल था

कहीं ख़ून-ए-दिल से लिखा तो था तिरे साल-ए-हिज्र का सानेहा
वो अधूरी डाइरी खो गई वो न-जाने कौन सा साल था