मुझ से आज़ुर्दा जो उस गुल-रू को अब पाते हैं लोग
और ही रंगत से कुछ कुछ आ के फ़रमाते हैं लोग
जब से जाना बंद मेरा हो गया ऐ हमदमो
तब से उन के घर में हर हर तरह के आते हैं लोग
मेरे आह-ए-सर्द की तासीर उस के दिल में देख
हाए किस किस तरह मुझ पर उस को गर्माते हैं लोग
जब वो घबराते थे मुझ से तब थे उन के घर के ख़ुश
अब जो वो ख़ुश हैं तो उन के घर के घबराते हैं लोग
कोई समझाओ उन्हें बहर-ए-ख़ुदा ऐ मोमिनो
उस सनम के इश्क़ में जो मुझ को समझाते हैं लोग
रोज़-ए-हिज्राँ तो दिखाया सौ फ़रेबों से मुझे
देखिए अब और क्या क्या हाए दिखलाते हैं लोग
जो लगाते थे बुझाते थे हमेशा उन से आह
वो ही अब नाचार 'ग़मगीं' मुझ से शरमाते हैं लोग
ग़ज़ल
मुझ से आज़ुर्दा जो उस गुल-रू को अब पाते हैं लोग
ग़मगीन देहलवी