मुझ में उस में हिजाब था न रहा
पहले जो इज़्तिराब था न रहा
कुफ़्र ही दीन बन गया मेरा
कुफ़्र में जो हिजाब था न रहा
लज़्ज़त-ए-सुब्ह-ओ-शाम भूल गए
दिल जो भुन कर कबाब था न रहा
बे-हयाई की ओढ़ ली चादर
पहले वो आब आब था न रहा
इस ने अब साथ मेरा छोड़ दिया
इश्क़ में कामयाब था न रहा
रोज़-ओ-शब चैन से गुज़रते हैं
वक़्त में पेच-ओ-ताब था न रहा
हो गए उस के दर के पहरे-दार
मेरा जीना अज़ाब था न रहा
शाम होते ही बुझ गया 'आजिज़'
एक मुफ़्लिस का ख़्वाब था न रहा

ग़ज़ल
मुझ में उस में हिजाब था न रहा
लईक़ आजिज़