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मुझ को तो गिर के मरना है | शाही शायरी
mujhko to gir ke marna hai

ग़ज़ल

मुझ को तो गिर के मरना है

जौन एलिया

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मुझ को तो गिर के मरना है
बाक़ी को क्या करना है

शहर है चेहरों की तमसील
सब का रंग उतरना है

वक़्त है वो नाटक जिस में
सब को डरा कर डरना है

मेरे नक़्श-ए-सानी को
मुझ में ही से उभरना है

कैसी तलाफ़ी क्या तदबीर
करना है और भरना है

जो नहीं गुज़रा है अब तक
वो लम्हा तो गुज़रना है

अपने गुमाँ का रंग था मैं
अब ये रंग बिखरना है

हम दो पाए हैं सो हमें
मेज़ पे जा कर चरना है

चाहे हम कुछ भी कर लें
हम ऐसों को सुधरना है

हम तुम हैं इक लम्हे के
फिर भी वा'दा करना है