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मुझ को ता-उम्र तड़पने की सज़ा ही देना | शाही शायरी
mujhko ta-umr taDapne ki saza hi dena

ग़ज़ल

मुझ को ता-उम्र तड़पने की सज़ा ही देना

ज़फ़र अंसारी ज़फ़र

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मुझ को ता-उम्र तड़पने की सज़ा ही देना
तुझ को मंज़ूर अगर हो तो भुला ही देना

ऐ ग़म-ए-हिज्र वो तोहमत जो लगाए मुझ पर
मेरी बे-लौस मोहब्बत की गवाही देना

ये अलग बात कि हो जाऊँ मोहब्बत में तबाह
तू न मुझ को कभी एहसास-ए-तबाही देना

वो जो मजबूर करें शरह-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त को
अश्क-आमेज़ निगाहों से सुना ही देना

उन के दामन को मह-ओ-मेहर से करना मामूर
मेरे हिस्से में जहाँ भर की स्याही देना

वो जवाँ के कहीं फ़ित्ना-ए-दौराँ न बने
हुस्न को फ़ितरत-ए-माशूक़-निगाही देना

आज भी याद है ऐ दोस्त इनायत तेरी
वो तिरा इतना हँसाना कि रुला ही देना

मेरे हर शेर में रूदाद-ए-सितम है उन की
ऐ 'ज़फ़र' मेरी ग़ज़ल उन को सुना ही देना