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मुझ को कहाँ ये होश तिरी जल्वा-गाह में | शाही शायरी
mujhko kahan ye hosh teri jalwa-gah mein

ग़ज़ल

मुझ को कहाँ ये होश तिरी जल्वा-गाह में

शिव दयाल सहाब

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मुझ को कहाँ ये होश तिरी जल्वा-गाह में
जल्वे में है निगाह कि जल्वा निगाह में

वो क्या निगाह जो न किसी दिल में घर करे
वो दिल ही क्या न हो जो किसी की निगाह में

मुझ को ज़माने-भर के ग़मों से नजात है
जब से है मेरा दिल तिरे ग़म की पनाह में

पहले गुनाहगार तमाशा हुई निगाह
लज़्ज़त-शरीक फिर हुआ दिल इस गुनाह में

निस्बत ही क्या सवाब को मेरे गुनाह से
सौ सौ सवाब हैं मिरे इक इक गुनाह में

तेरे जमाल-ए-नाज़ का हुस्न-ए-कमाल है
ख़ुद जल्वा बन गया हूँ तिरी जल्वा-गाह में

आबाद है जहान-ए-वफ़ा उन की याद से
बर्बाद हो गए जो मोहब्बत की राह में

उठती नहीं निगाह किसी सम्त ऐ 'सहाब'
किस हुस्न-ए-बे-बदल के हैं जल्वे निगाह में