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मुझ को दीवाना समझते हैं वो शैदाई भी | शाही शायरी
mujhko diwana samajhte hain wo shaidai bhi

ग़ज़ल

मुझ को दीवाना समझते हैं वो शैदाई भी

नूह नारवी

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मुझ को दीवाना समझते हैं वो शैदाई भी
मैं तमाशा भी हूँ महफ़िल में तमाशाई भी

बढ़ गई हम से नक़ाहत में हमारी तस्वीर
इस में बाक़ी न रही क़ुव्वत-ए-गोयाई भी

ढल न जाए कहीं शाने से हवा में आँचल
अब वो शरमाते हैं लेते हुए अंगड़ाई भी

मिट गया दाग़-ए-दिल-ज़ार भी रफ़्ता रफ़्ता
बुझ गया आज चराग़-ए-शब-ए-तन्हाई भी

जिस क़दर पास थी पूँजी उसे हम खो बैठे
इश्क़ में 'नूह' गई दौलत-ए-आबाई भी