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मुजस्सम दाग़-ए-हसरत हूँ सरापा नक़्श-ए-इबरत का | शाही शायरी
mujassam dagh-e-hasrat hun sarapa naqsh-e-ibrat ka

ग़ज़ल

मुजस्सम दाग़-ए-हसरत हूँ सरापा नक़्श-ए-इबरत का

मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी

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मुजस्सम दाग़-ए-हसरत हूँ सरापा नक़्श-ए-इबरत का
मुझे देखो कि होता है यही अंजाम उल्फ़त का

उन्हें शौक़-ए-दिल-आज़ारी हमें ज़ौक़-ए-वफ़ादारी
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब अपने किशोर-ए-कार-ए-उल्फ़त का

विसाल-ए-यार की ऐ दिल कोई पुर-ज़ोर कोशिश कर
हवा-ए-आह से पर्दा उठा दे शाम-ए-फ़ुर्क़त का

दिल-ए-पुर-शौक़ ने डाला है मुझ को किस कशाकश में
इधर है हद की बे-सब्री उधर वअ'दा क़यामत का

तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में
कि दिल में रह के अंदाज़ा नहीं है दिल की हालत का

जहाँ में चार दिन रह कर फ़क़त बू-ए-वफ़ा देना
गुलों से मैं सबक़ लेता हूँ आईन-ए-सोहबत का

लगा रखता है उस की नज़्र को चश्म-ए-तमन्ना ने
वो इक आँसू कि मजमूआ है सारी दिल की ताक़त का

मिरी क़ुदरत से अब इख़्फ़ा-ए-राज़-ए-इश्क़ बाहर है
कि रंग आने लगा है आँसुओं में ख़ून-ए-हसरत का

इक आह-ए-सर्द भर लेता हूँ जब तुम याद आते हो
ख़ुलासा किस क़दर मैं ने किया है रंज-ए-फ़ुर्क़त का

वो दिल है बज़्म-ए-आलम में 'नज़र' इक साज़-ए-बशकस्ता
न छेड़े तार-ए-हस्ती पर जो नग़्मा उस की क़ुदरत का