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मुद्दतों से जो मोअ'त्तर था वो दफ़्तर काट कर | शाही शायरी
muddaton se jo moattar tha wo daftar kaT kar

ग़ज़ल

मुद्दतों से जो मोअ'त्तर था वो दफ़्तर काट कर

माहिर अब्दुल हई

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मुद्दतों से जो मोअ'त्तर था वो दफ़्तर काट कर
ज़र्द मौसम लिख दिया सतर-ए-गुल-ए-तर काट कर

दीदा-ए-बीना की ख़ातिर था जो सामान-ए-नशात
रेज़ा रेज़ा कर दिया किस ने वो मंज़र काट कर

कोई खिड़की ही नज़र आई न दरवाज़ा मिला
थक गए हैं पाँव दीवारों के चक्कर काट कर

दामन-ए-शब में हैं कितने फूल क्या उस को ख़बर
सो गया कोह-ए-मशक़्क़त को जो दिन-भर काट कर

खो गया है आदमी बे-चेहरगी के दश्त में
ले उड़ा है वक़्त आईनों के जौहर काट कर

यूँ किया आज़ाद ज़ंजीर-ए-तअल्लुक़ से मुझे
छोड़ दे जैसे कोई तोते के शह-पर काट कर

चाहते हैं सब को बे-मेहनत मिले शीरीं हमें
कौन अब लाएगा जू-ए-शीरीं पत्थर काट कर

तब कहीं पाया किसी ने उस की मंज़िल का पता
जब मसाफ़त क़त्अ की ख़ुद को सरासर काट कर

तीरगी में था जो 'माहिर' शम-ए-रौशन की मिसाल
ख़ाक पर फेंका है किस ज़ालिम ने वो सर काट कर