मुद्दत हुई ख़मोशी-ए-इज़हार-ए-हाल को
आब-ए-सदा ही दीजिए दश्त-ए-ख़याल को
फिर एक शाख़-ए-ज़र्द गिरी ख़ाक हो गई
फिर बर्ग-ए-नौ मिले शजर-ए-माह-ओ-साल को
झोंका ये किस के लम्स-ए-गुरेज़ाँ की तरह था
अब हल ही करते रहिए हवा के सवाल को
हम-रंग-ए-माह-ताब था वो इस में खो गया
अब कितनी दूर फेंकिए नज़रों के जाल को
शब भर हवा के रंग बदलते रहे नए
मैं देखता रहा सफ़र-ए-बर-शगाल को
जाएगा ख़ून-ए-शब न किसी तौर राएगाँ
मुँह पर मलेगी सुब्ह शफ़क़ के गुलाल को
जचते नहीं निगाह में ख़ुशियों के आफ़्ताब
दिल ढूँढता है किस ग़म-ए-ज़ोहरा-ए-जमाल को
इंसानियत के दर्द की आवाज़ बन सके
सोज़-ए-नवा से सींचिए ज़ख़्म-ए-ख़याल को
दीजे फिर आब-ए-दीदा-ए-तर से हयात-ए-नौ
फ़न्न-ओ-अदब के सब्ज़ा-ए-नौ-पाएमाल को

ग़ज़ल
मुद्दत हुई ख़मोशी-ए-इज़हार-ए-हाल को
रफ़ीक़ ख़ावर जस्कानी