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मोहर-ब-लब है किस लिए, किस लिए बोलता नहीं | शाही शायरी
mohr-ba-lab hai kis liye, kis liye bolta nahin

ग़ज़ल

मोहर-ब-लब है किस लिए, किस लिए बोलता नहीं

निकहत बरेलवी

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मोहर-ब-लब है किस लिए, किस लिए बोलता नहीं
ऐ दिल-ए-बे-तलब! बता क्या कोई मुद्दआ नहीं

अहल-ए-जुनूँ को अब के भी इज़्न-ए-जुनूँ मिला नहीं
अब के बरस भी बाग़ में फूल कोई खिला नहीं

अपना क़ुसूर है तो ये, और कोई ख़ता नहीं
हम ने फ़क़ीह-ए-शहर को माना कभी ख़ुदा नहीं

ये तो हुआ कि रौशनी और भी कुछ भड़क उठी
तेज़ हवा के बावजूद दिल का दिया बुझा नहीं

राह-ए-तलब में आज तक अहल-ए-तलब का क़ाफ़िला
यूँ ही रवाँ-दवाँ रहा और कभी थका नहीं

किस से तलब करें भला ख़ून का अपने ख़ूँ-बहा
अपने अलावा और कोई अपना हरीफ़ था नहीं

दिल का अजीब रंग है और वो शख़्स संग है
ता-ब-निगाह दूर तक जिस का कोई पता नहीं