EN اردو
मोहमल है न जानें तो, समझें तो वज़ाहत है | शाही शायरी
mohmal hai na jaanen to, samjhen to wazahat hai

ग़ज़ल

मोहमल है न जानें तो, समझें तो वज़ाहत है

क़ैसर ख़ालिद

;

मोहमल है न जानें तो, समझें तो वज़ाहत है
है ज़ीस्त फ़क़त धोका और मौत हक़ीक़त है

हम पर ये इनायत भी, क्या तेरी मोहब्बत है
आना भी क़यामत है जाना भी क़यामत है

खुलता ही नहीं उस की इन ख़ास अदाओं में
तम्हीद-ए-मोहब्बत है, ज़िद है कि शरारत है

तौहीन-ए-वफ़ा है ये, हंगामा है क्यूँ इतना
इस दश्त-ए-वफ़ा में क्या पहली ये शहादत है

बदला है ज़माना बस, हालात नहीं बदले
हक़-गोई में लोगों को अब भी तो क़बाहत है

इक ज़िद के सबब दोनों मश्कूक हैं अब तक भी
इंकार है होंटों पर आँखों में मोहब्बत है

ये मारका-आराई क्या एक तरफ़ से थी
कुछ अपने किए पर भी क्या तुम को नदामत है

कुछ तू ही बता आख़िर क्यूँ-कर तिरे बंदों पर
हर शब है नई आफ़त हर रोज़ मुसीबत है

माना, हो तमाशाई तुम ज़ुल्म-ए-मुसलसल के
लेकिन ये ख़मोशी भी ज़ालिम की हिमायत है

तू अपनी ख़ताओं पर नादिम भी ज़रा हो जा
ऐ दोस्त अगर तुझ में थोड़ी भी शराफ़त है

कुछ दहर-परस्तों ने सफ़्फ़ाक-दिली बरती
कुछ हद से ज़ियादा ही हम में भी शराफ़त है

क्या शौक़-ए-जुनूँ था जो आए थे यहाँ 'ख़ालिद'
इस दश्त-ए-वफ़ा में तो हर लम्हा अज़िय्यत है