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मोहब्बतें थीं कुछ ऐसी विसाल हो के रहा | शाही शायरी
mohabbaten thin kuchh aisi visal ho ke raha

ग़ज़ल

मोहब्बतें थीं कुछ ऐसी विसाल हो के रहा

साबिर ज़फ़र

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मोहब्बतें थीं कुछ ऐसी विसाल हो के रहा
वो ख़ुश-ख़याल मिरा हम-ख़याल हो के रहा

हर एक पर्दे में दरयाफ़्त उस का हुस्न किया
फिर उस ख़ज़ाने से मैं माला-माल हो के रहा

लहू की लहर में शादाबियों की शिद्दत से
मिज़ाज उस का मिरे हस्ब-ए-हाल हो के रहा

करम का सिलसिला जो मुंक़ता था ग़फ़लत से
बहाल कैसे न होता बहाल हो के रहा

हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
मैं उस की और वो मेरी मिसाल हो के रहा