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मोहब्बत नग़्मा भी है साज़ भी है | शाही शायरी
mohabbat naghma bhi hai saz bhi hai

ग़ज़ल

मोहब्बत नग़्मा भी है साज़ भी है

बिर्ज लाल रअना

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मोहब्बत नग़्मा भी है साज़ भी है
शिकस्त-ए-साज़ की आवाज़ भी है

है निय्यत ही में दोज़ख़ और जन्नत
यही दम-सोज़ भी दम-साज़ भी है

न तोड़ें मेरा साज़-ए-दिल न तोड़ें
कि इस में आप की आवाज़ भी है

मोहब्बत यूँ तो है इक लफ़्ज़-ए-सादा
जो समझो तो फ़साना-साज़ भी है

क़फ़स परवाज़-ए-दुश्मन तो है लेकिन
क़फ़स इक दावत-ए-परवाज़ भी है

यही गुल है जो तस्वीर-ए-ख़मोशी
शिकस्त-ए-ग़ुंचा की आवाज़ भी है

नहीं ज़ंजीर-ए-पा ही ये तसव्वुर
जो बंध जाए पर-ए-पर्वाज़ भी है

मैं तेरा राज़ खोलूँ भी तो क्यूँ कर
कि तेरा राज़ मेरा राज़ भी है

ये दुनिया है जो ख़्वाब-ए-नाज़ 'रा'ना'
यही ता'बीर-ए-ख़्वाब-ए-नाज़ भी है