EN اردو
मिज़ाज-ए-हुस्न में यारब तू प्यार पैदा कर | शाही शायरी
mizaj-e-husn mein yarab tu pyar paida kar

ग़ज़ल

मिज़ाज-ए-हुस्न में यारब तू प्यार पैदा कर

सय्यद मोहम्मद ज़फ़र अशक संभली

;

मिज़ाज-ए-हुस्न में यारब तू प्यार पैदा कर
नहीं तो फिर मिरे दिल में क़रार पैदा कर

बढ़ा न दस्त-ए-तलब नज़्र-ए-नाज़ दिल कर के
निगाह-ए-हुस्न में अपना वक़ार पैदा कर

बदल दे कोशिश-ए-पैहम से आब-ओ-गिल का मिज़ाज
ख़िज़ाँ न आए जिसे वो बहार पैदा कर

फ़लक पे चढ़ के नज़र आए कुछ झलक जिस की
वो आरज़ू दिल-ए-उम्मीद-वार पैदा कर

ये बेबसी तो नहीं तेरी शान-ए-इंसानी
तू आदमी है तो ख़ुद इख़्तियार पैदा कर

तिरे अमल से हो सारा जहान हैरत में
ज़मीन-ए-शोर में भी लाला-ज़ार पैदा कर

दयार-ए-ग़म को मिटा कर बसा जहान-ए-ख़ुशी
नई फ़ज़ा नए लैल-ओ-नहार पैदा कर

जो चाहता है 'ज़फ़र' इल्तिफ़ात-ए-दोस्त इधर
तो दिल में जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार पैदा कर